कहानी संग्रह >> जोड़ा हारिल की रुपकथा जोड़ा हारिल की रुपकथाराकेश कुमार सिंह
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इन कहानियों में अपने परिवेश और समय को भिन्न-भिन्न कोणों से रेखांकित किया गया है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
नयी पीढ़ी के प्रखर कथाकार राकेश कुमार सिंह हिन्दी कथा-लेखन में अपनी
विशिष्ट पहचान बना चुके हैं। उनके विविध आयामी रचना-संसार का साक्षी है
प्रस्तुत कहानी संग्रह ‘जोड़ा हारिल की रूपकथा’। ये
कहानियाँ गाँव-कसबे,खेत-खलिहान तथा जंगल-पठार से लगाकर वैज्ञानिक
प्रयोगशालाओं जैसे अछूते क्षेत्रों और उत्तरआधुनिक समाज की विकृत होती
जड़ों तक फैली हुई हैं। राकेश कुमार सिंह ने इन कहानियों में अपने परिवेश
और समय को भिन्न-भिन्न कोणों से रेखांकित किया है। उन्होंने भारतीय जन-के
दुःख दैन्य, आकांक्षाओं एवं जीवन-संघर्ष को अपनी कहानियों में इस
प्रामाणिकता के साथ उकेरा है कि इनसे गुजरते हुए,बदलते समय की आहटों को
साफ-साफ सुना जा सकता है।
नया चेहरा
(इस कहानी के नाम, पात्र, घटनाएँ...कुछ भी काल्पनिक नहीं है।)
शेरली मेरा दोस्त है। शेरली मेरा ज़िगरी यार है। शेरली का नाम कुछ अजीब-सा
लगता है न ? शे ऽ ऽ रली...! जाति या धर्म का कुछ पता ही नहीं चलता ? पर हम
उसे शुरू से इसी नाम से पुकारते हैं।
दरअसल नाम तो उसका शेर अली है परन्तु जल्दी-जल्दी बोलने-पुकारने की हबड़-तबड़ में ‘अ’ का लोप हो जाता है न ? इसीलिए शेरली !
शेरली और मैं बचपन से एक ही स्कूल में साथ-साथ पढ़े। जब से होश सँभाला एक ही कॉलोनी में साथ..रहे पले बढ़े। शेरली के वालिद जपला सीमेण्ट फैक्ट्री में मुलाज़िम थे और मेरे पिता वहीं हार्वे हाईस्कूल में शिक्षक !
हम स्कूल साथ जाते। कक्षा में एक ही बेंच पर साथ बैठते। स्कूल का होमवर्क कभी शेरली के घर होता तो कभी मेरे घर पर ! न तो शेरली के पाँचों वक्त के नमाजी अम्मी-अब्बू को मुझसे कोई गुरेज था और न ही पूजा-पाठ में जरूरत से ज्यादा रुचि लेने वाली मेरी माँ या पिता को ही शेरली से किसी किस्म का परहेज था।
शेरली ने दो बकरियाँ पाल रखी थीं। स्कूल लौटने के बाद अक्सर शाम को वह बकरियाँ चराने कॉलोनी की चहारदीवारी के बाहर वाले खेतों में जाया करता था। साथ-साथ मैं भी ! बकरियों को परती पड़े खेतों या आहर की मेंड़ पर चरने को हाँककर हम कच्ची सड़क की अधटूटी पुलिया पर बैठकर जासूसी उपन्यास पढ़ा करते थे। सूरज ढल चुकने के बाद, जब पढ़ना मुश्किल हो जाता, हम वापस घर लौटते थे।
दसवें-ग्यारहवें दर्जे से ही हमें जासूसी उपन्यासों की लत लग गयी थी। तब हमारे प्रिय लेखक के उपन्यासों के सुनील और रमाकान्त नामक मित्र-पात्रों के चरित्र हमें आदर्श दोस्ती की मिसाल लगते थे। अक्सर हम उन चरित्रों के संवादों की नकल किया करते थे। मसलन...माकूल मौका पाते ही उपन्यास के एक पात्र की तरह शेरली आधा जुमला बोलता।
‘‘याराँ नाल बहाराँ...’’
‘‘मेले मित्तराँ दे।’’ आधा मैं बोलकर जुमला पूरा करता। शेरली और मेरे बीच कोई पर्दादारी नहीं थी। हमने अपने निक्कर तो नहीं बदले थे पर एक-दूसरे को शायद ही कभी नाम लेकर पुकारा हो। अबे शेरली...अरे राजू...सुनो मियाँ....देख मुन्नी...साले तू...बस यूँ ही एक-दूसरे से सम्बोधित होते थे हम !
केले के पत्ते पर ठहरी झिलमिल ओस की बूँद की मानिन्द साफ, चमकता और पारदर्शी था हमारा दोस्ताना !
स्कूल की शिक्षा पूरी कर हमने एक साथ राँची के एक कॉलेज में दाखिला लिया था। तब पहली बार हमारे बीच फासले पैदा हुए थे। हमें कॉलेज के होस्टल में जगह मिल गयी थी पर शेरली ने मुसलमान बहुल इलाके हिन्दीपीढ़ी के एक लॉज में कमरा लेकर रहना पसन्द किया था। और यह बात थी कि हमारे बीच की यह दूरी बस रात भर के लिए ही रहती थी।
कॉलेज में तो हम सारा दिन साथ रहते ही थे। एक ही बेंच पर बैठनेवाली हमारी स्कूली आदत भी छूटी नहीं थी। फिर हमारी शामें, अँधेरा घिरने और हमारे जुदा होने तक, अक्सर घोष ‘दा के ‘बाग्ला चा’ की दुकान पर ही बीतती थीं, जब तक कि ‘घोष’ दा हमें जाने को नहीं कहते-
‘‘कि रे विद्यार्थी लोग...! पढ़ा-लेखा कोरबे ना कि... ? बेशी चा खेयो ना। तीन कोपेर बेशी देबो ना।’’
यह दुकान होस्टल के मुख्य द्वार के सामने ही सड़क के पार थी। घोष’दा लड़कों का काफी खयाल रखते थे।
हम साथ साथ ग्रेजुएट हुए। कालेज से छूटकर साथ ही बेकारी, खालीपन और निठल्लेपन से जूझे। प्रतियोगिता परीक्षाओं में शामिल हुए। तब हमारी शामें उसी कच्ची सूनसान सड़क की टूटी पुलिया पर मूँगफलियाँ तोड़ते या भुने चने फाँकते बीतती थीं। जिसपर हम स्कूली दिनों में बैठा करते थे।
फिर हम दोनों की नौकरियाँ लगीं। पहले शेरली पटना के सचिवालय में क्लर्क बहाल हुआ। कुछ ही समय बाद मुझे भी आरा शहर के कॉलेज में नौकरी मिल गयी थी।
जब मुझे नियुक्ति पत्र मिला था तब शेरली घर आया हुआ था। मैं नौकरी ज्वाइन करने आरा आने लगा तो शेरली भी पटना तक मेरे साथ आने को तैयार हो गया था।
पटना में शेरली मुझसे अलग हो गया। मैं दूसरी ट्रेन से आरा निकल पड़ा था। अपने पीछे अपने यार को चिन्तित छोड़कर। उसे फिक्र थी कि मैं एक अजनबी शहर में कैसे सैटल हो पाऊँगा जबकि मैं सोचता था कि छोटे शहर में सैटल होने में कोई मुश्किल नहीं परन्तु राजधानी की भागमभाग वाली हृदयहीन भीड़ से कस्बे वाला मेरा सीधा-सादा यार पता नहीं कैसे ताल-मेल बिठा पाता होगा ?
नौकरी पर लगते ही हमारी शादियाँ भी हो गयीं। मैंने शेरली की शादी पर गला खराब होने तक सेहरा गाया। अगले वर्ष शेरली भी मेरी शादी में थककर चूर होने तक नाचा। हम दोनों खुश थे।
हम दोनों तो लगभग नास्तिक ही थे पर हमारी पत्नियाँ बेहद धार्मिक निकली थीं। मेरी पत्नी रक्षाबन्धन का त्यौहार भी उतनी ही श्रद्धा, निष्ठा और उत्साह से मनाती थी जितनी कि शेरली की बीवी पाँचों वक्त की नमाज और ईद !
वक्त गुजरता रहा। हमारे पिता कारखाने और स्कूल की नौकरियों से सेवानिवृत्त होकर उस पुराने कस्बे को छोड़कर अपने-अपने पैतृक गाँवों में स्थानान्तरित हो गये। कस्बा छूटा तो मौके-गर-मौके तीज-त्यौहारों या लम्बी छुट्टियों में शेरली से मिलने-गपियाने के मौके अमावस का चाँद हो गये। अपनी-अपनी घरेलू समस्याएँ, बच्चे, बच्चों के स्कूल, राशन-रसोई, बीमे की किश्तें और तरक्की की सी़ढि़याँ...रोजमर्रा के अनेक झंझट...दिन महीने वर्ष..शेरली से मिले सात आठ वर्ष हो गये।
आखिरी बार जब हम मिले थे तो वह दिसम्बर की सर्दी-गुलाबी शाम थी। सुबह मैं सपरिवार, कस्बा छोड़ने वाला था। क्योंकि पिता रिटायर हो चुके थे।
उस शाम रात गिरने तक हम पुलिया पर बैठे बातें करते रहे थे। अपने-अपने भविष्य के बारे में, जीवन की भावी योजनाओं के बारे में, आरा-पटना की दिक्कतों के बारे में...फिर कब, कहाँ और कैसे मिलने के बारे में। हम वहीं बैठे रहे थे, अँधेरा घिरने, चाँद के उगने और फिर चाँद के पिघल-पिघलकर चाँदनी की शक्ल में टपकने तक...।
फिर हम चंचल चटर्जी के पोल्ट्री-फार्म में अण्डे चुराने गये थे। शेरली पता नहीं कैसे कच्चा अण्डा फोड़कर पी लेता था जबकि मुझे कच्चे तोड़े अण्डों से लोंहराइन-फोंकराइन बास आती थी !
रात जब हम शेरली के घर लौटे तो पता चला अयोध्या वाली बावरी मस्जिद ध्वस्त कर दी गयी थी। टेलीविजन पर हमने ढहे मलबे, उन्माद में चीखते सेनानायकों और विक्षिप्त सेना के रोंगटे खड़े कर देनेवाले दृश्य देखे।
‘‘एक ऐतिहासिक स्मारक नष्ट...!’’ मैंने कहा था।
‘‘ऐतिहासिक स्मारक या ऐतिहासिक बखेड़ा...?’’ शेरली तिक्त स्वर में बोला था-‘‘वोट का मोहरा। देख लेना...अब ढहानेवाले नारे लगाएँगे कि मन्दिर वहीं बनेगा और जवाब होगा यहाँ मस्जिद दोबारा खड़ी करो। दोनों मिलकर कभी नहीं कहेंगे कि झगड़ा खत्म करो। झगड़ालू जगह पर भगवान या खुदा नहीं टिकता। सो वहाँ बच्चों के लिए स्कूल, बूढ़ों के लिए कोई पार्क, कोई अस्पताल या संग्रहालय ही बनवा दो।’’
मैं शेरली के तमतमाए चेहरे को ताकता रहा था। आज लगता है कि गुम्बद को ढहानेवाली चोटें कितनी मारक और खतरनाक थीं जिसने सिर्फ ईंट-गारे ही नहीं तोड़े...कई दूसरी चीजें भी उस रोज टूटी थीं। पर हमारी दोस्ती की बुनियाद तो ईंट-गारे की कतई नहीं थी।
आज जब दरवाजे पर दस्तक हुई और मैंने दरवाजा खोला तो शेरवानी, चौड़े पाँयचोंवाला पायजामा और दुपल्ली टोपी पहने सशरीर शेरली को देख सुखद आश्चर्य से तर-ब-तर हो गया मैं।
शेरली...! मेरा यार ! मेरे घर पर...! मेरे दर पर ! बेसाख्ता मुँह से निकला-
‘‘याराँ नाल बहाराँ...’’
‘‘पहचाना मुझे ?’’ शेरली शायद ‘मेले मित्तरां दे’ वाली पंचलाइन भूल चुका था। आखिर एक छोटे से आधे-अधूरे जुमले को भूलने के लिए सात, आठ या शायद नौ साल का वक्फा नाकाफी तो नहीं होता।
‘‘वक्त के साथ चेहरे क्या इतने बदल जाते हैं कि मैं तुझे पहचानूँ ही नहीं..स्साले !’’ मैंने उसकी शेरवानी का कॉलर पकड़कर उसे घर के भीतर खींचा-‘‘चल पुत्तर...भीतर आ जा।’’
‘‘एक जरूरी काम से आरा आया था,’’ उसने कहा था-‘‘सारी ट्रेनें डिस्टर्ब हैं। पटना के लिए पहली गाड़ी अब शाम को ही मिल सकेगी...सो तेरा घर ढूँढ़ता यहाँ...’’
‘‘अबे उल्लू की दुम फाख्ता !’’-मैंने इसे टोका-‘तुझसे आने की या अब तक न आने की सफाई कौन माँग रहा है ? यार आ गया...बस, बहार आ गयी। क्यों आया...कैसे आया ये बातें बेमानी हैं यार !’’
मैंने उसे सोफे पर धकेल दिया। खिड़कियाँ खोलकर पर्दे हटा दिये ! घर में शान्ति सूँघता शेरली बोला, ‘‘घर में अकेले ही हो शायद !’’
‘‘हाँ, फिलहाल। तेरी भाभीजान बच्चों के साथ दशहरे-छठ की पूजा में गाँव गई हैं।’’ मैंने बताया था-‘‘आज-कल में ही लौटेंगी..और सुना, कैसा है तू ? कुछ दुबला-दुबला दिखने लगा है और...उम्रदराज भी।’’
शेरली हौले से मुस्कुराया था। हँसने में हमेशा से कंजूस रहा है मेरा यार। बोला, ‘‘जैसे तुम जवान हो रहे हो..क्यों ? गंजे होने लगे हो मियाँ, और कुछ भद्दे भी।’’ उसका इशारा मेरी हल्की तोंद की ओर था।
‘‘छोड़ भी..बोल क्या खाएगा ? क्या पिएगा ? चाय, काफी, शर्बत, शिकंजी या मेरा खूने जिगर ?’
‘‘हा...हा..हा...!’’ वह हँसा। ठठाकर हँसा-‘‘अभी तक तेरा खिलन्दड़ापन और शायराना मिजाज गया नहीं ! बदला नहीं तू ?’’
‘‘अबे, मैं क्या बिस्तर की चादर या कुशन-कवर हूँ जो बदल जाऊँगा ?’ मैंने कहा था-‘‘देख मुन्ने, तेरी भाभी है नहीं। होटल में खाता हूँ। फिर भी तेरे लिए करता हूँ कुछ...पता नहीं तू कब का भूखा होगा।’’
शेरली के ‘ना-ना’ करने के बावजूद, छठ पर्व के प्रसादस्वरूप पास-पड़ोस से आये ठेकुएँ-अगरौटे-कवचनियाँ (आटे के पकवान) और चन्द फलों के टुकड़े प्लेट में सजाकर मैंने अपने सामने पड़ी सेण्टर टेबल पर रख दिये।
‘‘चल, बिसमिल्लाह कर ! घर में यही कुछ है मियाँ, छठ का प्रसाद...पा ले !’’
‘‘नहीं यार...कुछ खा नहीं सकूँगा...।’’
शेरली ने प्रसाद की ओर हाथ भी नहीं बढ़ाया। पंजीरी, आटे और सिन्दूर से लिथड़े प्रसाद को देख शायद उसे अरुचि हो रही थी। बाज लोग तो घिनाते भी हैं पर धर्म के भय से कह नहीं पाते। लेकिन मैंने पूछा, ‘‘क्यों ?’’
‘‘दरअसल आज सुबह से ही पेचिश से परेशान हूँ। काम इन्तहाई जरूरी न होता तो मैं ऐसी तबीयत लेकर घर से निकलता ही नहीं।’’
ओह...! तो शेरली के न खाने की वजह, सिन्दूरी में लिथड़े व्यंजन कतई नहीं थे। वह तो दूसरी ही साँसत में पड़ा था।
‘‘तो भई, कुछ फल-वल ही ले ! कुछ तो-’’ मैंने इसरार किया !
‘‘ना...’’ शेरली ने इनकार किया-‘‘आज तो एकदम फाका करूंगा ! वो..क्या कहते हैं तुम्हारे मजहब में कम्पलीट फास्टिंग को ? निठाह उपवास...? या निर्जल उपवास ?’’
वह हँस पड़ा। मैं भी ! फिर मैं उठा।
‘‘अब मैं चाय बनाने जा रहा हूँ। पीनी पड़ेगी। निठाह..निर्जल किया तो साले पटककर तेरे कण्ठ में जलती चाय उड़ेल दूँगा...’’
‘‘अच्छा...ठीक है यार...ले आ तू चाय।’’ वह खिलखिलाया। कमरे में खुशबुएँ बिखर गयीं।
मैंने जैसे-तैसे चाय बनायी। पत्ती कुछ ज्यादा ही पड़ गयी, फिर भी काली चाय बन ही गयी।
फिजाँ में चाय की लहराती भाप और चुस्कियों के बीच हम बातें करने लगे। गुजरे जमाने को याद करने लगे।
स्कूल की बातें, कॉलोनी की यादें, कॉलेज के दिन...! टूटी पुलिया पर गुजरी शामें। चटर्जी दा के फार्म से अण्डे चुराने के किस्से। बचपन की परछाइयाँ...मरे हुए क्षणों की स्मृतियाँ मुखर होती रहीं।
बीवी की फरमाइशें...बच्चों के भविष्य...रोजमर्रा की किलकिल और नौकरी के लफड़ों से गुजरता बातों का दरिया चुनाव और राजनीति की ओर मुड़ गया। विषय बदलते रहे..वक्त गुजरता रहा...न पेट भरा..न मन ही अघाया !
जब शेरली ने जाना कि मैंने कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया है तो उसने प्रगतिशील साहित्य का जिक्र करते हुए, हिन्दू-मुस्लिम एकता और गैरसाम्प्रदायिकता की बातें करते हुए कई कहानियों के नाम गिना डाले। भीष्म साहनी की किताब ‘तमस’ और राही मासूम रज़ा के उपन्यास ‘आधा गाँव’ के कई संवाद ‘कोट’ किये।’
हमारे अलग होने के बाद के गुजरे कई सालों तक तो मैं बस रसायन विज्ञान ही पढ़ता-पढ़ाता रहा था। कभी-कभार पत्रिकाएँ या कहानियाँ पढ़ता था...खाली समय में। बाकायदा लिखने-पढ़ने का सिलसिला तो इधर-पाँच सालों से ही, पर शेरली ने तो न जाने कितना कुछ पढ़ डाला था। तभी तो वह काफी होशियारी भरी बातें करने लगा था।
बच्चों पर बात निकली तो उसने बताया कि उसने तो अपनी आठ वर्षीया बेटी रजिया के निकाह की योजना भी बना डाली थी। इस जमाने में इतनी कम उम्र में शादी की बात सोची भी कैसे उसने ? शेरली का बेटा इमरान मदरसे से तालीम पा रहा था। अब वह बेटे को सुदूर ‘स्टेट्स’ भेजने की सोच रहा है। आलिम-फाजिल बनाना चाहता है बेटे को। शेरली के अनुसार आदमी को अपने धर्म और संस्कृति की जड़ों से उखड़ना नहीं चाहिए!
मैंने उसे टोका था, ‘‘क्या दकियानूसी बातें करते हो मियाँ ? दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच चुकी है। डायनासोर के डी.एन.ए. से बृहस्पति की धुन्ध तक..और तू है कि इक्कीसवीं सदी में भी बाल-विवाह और उसी पुराने मदरसे से चिपका है...’’
‘‘मुन्ने..पता है...?’’ शेरली संजीदा हो गया था-‘‘जब महमूद गज़नवी सोमनाथ के मन्दिर पर चढ़ा आ रहा था तो एक पण्डित ने उसे चुनौती दी थी कि, ‘तुम मन्दिर नहीं लूट सकोगे। सर्वशक्तिमान ईश्वर तुम्हें रोक लेगा। हम तुम्हें रोक लेंगे।’ जानते हो तब महमूद ने क्या कहा...? उसने कहा था, ‘तुम हमें क्या रोकोगे ? तुम काफिर लोग बरहमन हो, राजपूत हो, बनिए हो...अछूत हो और हम...हम सिर्फ मुसलमान हैं...हमें कोई नहीं रोक सकता।’ फिर सोमनाथ के मंदिर का जो हश्र हुआ है वह सारी दुनिया जानती है। ‘सामर्थ्य और सीमा’..भगवतीचरण वर्मा...रिमेम्बर...?
मुझे मानना पड़ा, वाकई शेरली की अक्ल में इन्कलाबी इजाफा हुआ था। किसी को कायल कर लेने की हद तक समझदार और तार्किक हो गया था मेरा प्यार ! काफी जहीन ! बेहद दाना !!
मैंने शेरली को एक नयी निगाह से देखा। छोटे-से कस्बे की छोटी-सी कॉलोनी में रहने वाला मेरा दोस्त शेरली इतना होशियार तो कभी नहीं था। गुजरे कुछ सालों की शहरी जिन्दगी ने उसे कितना दुनियादार बना दिया था ?
मेरे साथ मुर्गी के अण्डे चुरानेवाला शेरली, पूरे सावन महीने झींसी-झड़ी से भीगती-सिहरती भोर में दूसरों की फुलवारियों से मेरी माँ के लिए पूजा के फूल-बेलपत्र चुरानेवाला शेरली....कितनी ज़हीन और उम्दा बातें करने लगा था ! मन्त्रमुग्ध मैं उसकी बातें सुनता रहा था। कई-कई बातें तो उसने ऐसी कहीं जो ऐसे मौकों पर मैं अपनी कहानियों के पात्रों से कहलवाना चाहता था।
..पर क्या वाहियात विषय छेड़ बैठे थे हम, वह भी ऐसे खुशनुमा मौके पर। बोलते-बोलते शेरली का चेहरा तमतमा उठा था। ज्यादा बिलोने से लस्सी पतली हो कर बिगड जाने का खतरा होता है। मैंने सन्दर्भ बदलने की नीयत से उसे टोका।
‘‘अच्छा..भई...तू जीता ! अब ज्यादा पीर-फकीर मत बन ! तू तो एकदम किसी इमाम-मौलाना की तरह तकरीर झाड़ना सीख गया है। पर मेरे बच्चे,...जब हमने हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द की कोई कहानी नहीं पढ़ी थी तब भी हमारी दोस्ती किसी हितोपदेश या पैरेबल्स की मोहताज नहीं थी। अब भी नहीं है...तू बोल, है क्या ?’’
उत्तर में शेरली ने अपनी कलाई घड़ी पर ताका।
‘‘या अल्लाह ! साढ़े छः !! पता ही नहीं चला वक्त कैसे गुजर गया। भई, अब मैं तो निकलूँगा...मेरी ट्रेन का वक्त शायद हो चुका।’’
‘‘यह तो कोई बात नहीं हुई-’’ मैंने इसरार किया-‘‘आज रात रुक ही जाते। ढेर सारी बातें करते हम ! तुमने तो न कुछ खाया...न पिया बस आये और चल दिये।’’
‘‘क्यों...? चाय नहीं पी...?’’ शेरली मुस्कुराया था।
‘‘फिर भी...!’’मैं झेंप गया ! संकोच से मुस्कुरा भी न सका था।
अमाँ छोड़ो भी ये फॉर्मेलिटीज़। जौक़ साहब ने भी तकल्लुफ को सरासर तकलीफ ही फरमाया है।
‘‘पर...शेरली।’’
‘‘तुम तो बस....! अगली बार के लिए भी कुछ रहने देगा कि नहीं ? सो माई सन, बेटर लक नेक्स्ट टाइम...ओ.के. ?’’
मैंने मौन सहमति दी। उसे रिक्शे पर बिठाकर जल्दी ही फिर आरा आने का वायदा लेकर, टेलीफोन नम्बरों का आदान-प्रदान करने के बाद विदा में हाथ हिला कर मैंने शेरली को स्टेशन के लिए रवाना किया।
शेरली विदा हो गया। दिन भर गप्पे मारने के बाद अचानक शान्त हो गये घर का अकेलापन कुछ ज्यादा ही गाढ़ा लगने लगा। शेरली तो जैसे आँधी की तरह आया और ढेर सारी यादों को ख़तों के पुलिन्दे सा बिखराता तूफान की भाँति गुजर गया। अपने पीछे मुझे कुछ उसी तरह किसी अकेले स्टेशन पर छोड़कर, जैसे कभी मैं उसे पटना स्टेशन पर छोड़कर आया था। मन उदास-उदास लगने लगा था...या शायद मैं जरूरत से कुछ ज्यादा ही ‘नास्टेल्जिक’ हो रहा था। मुझे अपना ही घर काटने लगा।
अब तक मैं कई कहानियाँ लिख चुका था पर पहली बार मैंने एक कहानी लखनऊ की एक पत्रिका द्वारा आयोजित कथा प्रतियोगिता में भेजी थी। कहानी ने प्रथम पुरस्कार पाया था उसकी सूचना मुझे डाक से मिल चुकी थी। यह प्रतियोगिता जिस कथा-पत्रिका ने आयोजित की थी उसका नया अंक इसी हफ्ते अपेक्षित था। शायद नया अंक आ ही गया हो। इसी बहाने मैंने स्टेशन पर स्थित बुकस्टाल का एक चक्कर लगाने का फैसला किया। शायद इससे मेरा अकेलापन कुछ कम हो सके। वैसे भी खूबसूरत शामें अकेले कमरे में बिताने से मुझे दहशत-सी होती है।
वह गुजरते अक्टूबर की सिहरती सर्द शाम थी। हल्के कोहरे में स्ट्रीट-लाइट की बत्तियाँ भुकभुकाने लगी थीं। मैं टहलता हुआ स्टेशन के प्रवेश-द्वार तक आ पहुँचा।
अभी प्रवेश-द्वार से कुछ कदम दूर ही था कि मेरे कदम ठिठक गये ! अचानक सामने गढ़ा देखकर अड़ने वाले घोड़े की तरह...!
शेरली, मेरा दोस्त...मेरा यार...एक चाय-समोसे की दुकान के बाहर खड़ा था। हाथ में समोसे की प्लेट थामे। गर्मागर्म लहरते समोसे के टुकड़े जबड़ों में कुचलते-पलटते शेरली को देख मैं...पर उसने तो कहा था पेचिश है..उपवास पर हूँ। मेरे यहाँ कुछ खाते न बना..कहता था मुफीद नहीं रहेंगे....पेचिश बिगड़ने का अन्देशा था उसे और यहाँ होटल के घटिया समोसे...? ठहर साले, अभी झाड़ता हूँ तेरी पेचिश...!
...पर मैं अपने सोच को कार्यरूप में परिणत न कर सका। समोसे खाते शेरली की कही कई बातें याद आने लगीं। उसकी गम्भीर आवाज...उसकी संजीदा बातें...धर्म, संस्कृति, जड़े, काफिर...बरहमन..राजपूत...मुसलमान ढेर सारे शब्द गड्डमड्ड होकर मेरी चेतना में टकराने लगे।
ओह...! मुझे मेरे यार शेरली के चेहरे पर लहराती लम्बी सफेद दाढ़ी क्यों उगती दिखने लगी ? उसके सिर पर घने घुँघराले बालों की जगह सफेद जालीदार टोपी...हाथ में प्लेट की बजाय तस्बीह..या कोहरे के पार कोई भ्रम...।
ना...कतई नहीं...! वह मेरा यार शेरली नहीं हो सकता। समोसे निगलता वह शख्स कोई और है जिससे मेरा कोई वास्ता नहीं। किसी गैर को बेवजह क्यों टोकना...जरूर मेरी आँखों को धोखा हो रहा है। मेरा दोस्त तो कब का पटना को रवाना हो चुका है। यह शख्स तो कोई फकीर है...कोई मुल्ला-मौलवी...मेरे लिए कतई अजनबी...कोई नया चेहरा...!
दरअसल नाम तो उसका शेर अली है परन्तु जल्दी-जल्दी बोलने-पुकारने की हबड़-तबड़ में ‘अ’ का लोप हो जाता है न ? इसीलिए शेरली !
शेरली और मैं बचपन से एक ही स्कूल में साथ-साथ पढ़े। जब से होश सँभाला एक ही कॉलोनी में साथ..रहे पले बढ़े। शेरली के वालिद जपला सीमेण्ट फैक्ट्री में मुलाज़िम थे और मेरे पिता वहीं हार्वे हाईस्कूल में शिक्षक !
हम स्कूल साथ जाते। कक्षा में एक ही बेंच पर साथ बैठते। स्कूल का होमवर्क कभी शेरली के घर होता तो कभी मेरे घर पर ! न तो शेरली के पाँचों वक्त के नमाजी अम्मी-अब्बू को मुझसे कोई गुरेज था और न ही पूजा-पाठ में जरूरत से ज्यादा रुचि लेने वाली मेरी माँ या पिता को ही शेरली से किसी किस्म का परहेज था।
शेरली ने दो बकरियाँ पाल रखी थीं। स्कूल लौटने के बाद अक्सर शाम को वह बकरियाँ चराने कॉलोनी की चहारदीवारी के बाहर वाले खेतों में जाया करता था। साथ-साथ मैं भी ! बकरियों को परती पड़े खेतों या आहर की मेंड़ पर चरने को हाँककर हम कच्ची सड़क की अधटूटी पुलिया पर बैठकर जासूसी उपन्यास पढ़ा करते थे। सूरज ढल चुकने के बाद, जब पढ़ना मुश्किल हो जाता, हम वापस घर लौटते थे।
दसवें-ग्यारहवें दर्जे से ही हमें जासूसी उपन्यासों की लत लग गयी थी। तब हमारे प्रिय लेखक के उपन्यासों के सुनील और रमाकान्त नामक मित्र-पात्रों के चरित्र हमें आदर्श दोस्ती की मिसाल लगते थे। अक्सर हम उन चरित्रों के संवादों की नकल किया करते थे। मसलन...माकूल मौका पाते ही उपन्यास के एक पात्र की तरह शेरली आधा जुमला बोलता।
‘‘याराँ नाल बहाराँ...’’
‘‘मेले मित्तराँ दे।’’ आधा मैं बोलकर जुमला पूरा करता। शेरली और मेरे बीच कोई पर्दादारी नहीं थी। हमने अपने निक्कर तो नहीं बदले थे पर एक-दूसरे को शायद ही कभी नाम लेकर पुकारा हो। अबे शेरली...अरे राजू...सुनो मियाँ....देख मुन्नी...साले तू...बस यूँ ही एक-दूसरे से सम्बोधित होते थे हम !
केले के पत्ते पर ठहरी झिलमिल ओस की बूँद की मानिन्द साफ, चमकता और पारदर्शी था हमारा दोस्ताना !
स्कूल की शिक्षा पूरी कर हमने एक साथ राँची के एक कॉलेज में दाखिला लिया था। तब पहली बार हमारे बीच फासले पैदा हुए थे। हमें कॉलेज के होस्टल में जगह मिल गयी थी पर शेरली ने मुसलमान बहुल इलाके हिन्दीपीढ़ी के एक लॉज में कमरा लेकर रहना पसन्द किया था। और यह बात थी कि हमारे बीच की यह दूरी बस रात भर के लिए ही रहती थी।
कॉलेज में तो हम सारा दिन साथ रहते ही थे। एक ही बेंच पर बैठनेवाली हमारी स्कूली आदत भी छूटी नहीं थी। फिर हमारी शामें, अँधेरा घिरने और हमारे जुदा होने तक, अक्सर घोष ‘दा के ‘बाग्ला चा’ की दुकान पर ही बीतती थीं, जब तक कि ‘घोष’ दा हमें जाने को नहीं कहते-
‘‘कि रे विद्यार्थी लोग...! पढ़ा-लेखा कोरबे ना कि... ? बेशी चा खेयो ना। तीन कोपेर बेशी देबो ना।’’
यह दुकान होस्टल के मुख्य द्वार के सामने ही सड़क के पार थी। घोष’दा लड़कों का काफी खयाल रखते थे।
हम साथ साथ ग्रेजुएट हुए। कालेज से छूटकर साथ ही बेकारी, खालीपन और निठल्लेपन से जूझे। प्रतियोगिता परीक्षाओं में शामिल हुए। तब हमारी शामें उसी कच्ची सूनसान सड़क की टूटी पुलिया पर मूँगफलियाँ तोड़ते या भुने चने फाँकते बीतती थीं। जिसपर हम स्कूली दिनों में बैठा करते थे।
फिर हम दोनों की नौकरियाँ लगीं। पहले शेरली पटना के सचिवालय में क्लर्क बहाल हुआ। कुछ ही समय बाद मुझे भी आरा शहर के कॉलेज में नौकरी मिल गयी थी।
जब मुझे नियुक्ति पत्र मिला था तब शेरली घर आया हुआ था। मैं नौकरी ज्वाइन करने आरा आने लगा तो शेरली भी पटना तक मेरे साथ आने को तैयार हो गया था।
पटना में शेरली मुझसे अलग हो गया। मैं दूसरी ट्रेन से आरा निकल पड़ा था। अपने पीछे अपने यार को चिन्तित छोड़कर। उसे फिक्र थी कि मैं एक अजनबी शहर में कैसे सैटल हो पाऊँगा जबकि मैं सोचता था कि छोटे शहर में सैटल होने में कोई मुश्किल नहीं परन्तु राजधानी की भागमभाग वाली हृदयहीन भीड़ से कस्बे वाला मेरा सीधा-सादा यार पता नहीं कैसे ताल-मेल बिठा पाता होगा ?
नौकरी पर लगते ही हमारी शादियाँ भी हो गयीं। मैंने शेरली की शादी पर गला खराब होने तक सेहरा गाया। अगले वर्ष शेरली भी मेरी शादी में थककर चूर होने तक नाचा। हम दोनों खुश थे।
हम दोनों तो लगभग नास्तिक ही थे पर हमारी पत्नियाँ बेहद धार्मिक निकली थीं। मेरी पत्नी रक्षाबन्धन का त्यौहार भी उतनी ही श्रद्धा, निष्ठा और उत्साह से मनाती थी जितनी कि शेरली की बीवी पाँचों वक्त की नमाज और ईद !
वक्त गुजरता रहा। हमारे पिता कारखाने और स्कूल की नौकरियों से सेवानिवृत्त होकर उस पुराने कस्बे को छोड़कर अपने-अपने पैतृक गाँवों में स्थानान्तरित हो गये। कस्बा छूटा तो मौके-गर-मौके तीज-त्यौहारों या लम्बी छुट्टियों में शेरली से मिलने-गपियाने के मौके अमावस का चाँद हो गये। अपनी-अपनी घरेलू समस्याएँ, बच्चे, बच्चों के स्कूल, राशन-रसोई, बीमे की किश्तें और तरक्की की सी़ढि़याँ...रोजमर्रा के अनेक झंझट...दिन महीने वर्ष..शेरली से मिले सात आठ वर्ष हो गये।
आखिरी बार जब हम मिले थे तो वह दिसम्बर की सर्दी-गुलाबी शाम थी। सुबह मैं सपरिवार, कस्बा छोड़ने वाला था। क्योंकि पिता रिटायर हो चुके थे।
उस शाम रात गिरने तक हम पुलिया पर बैठे बातें करते रहे थे। अपने-अपने भविष्य के बारे में, जीवन की भावी योजनाओं के बारे में, आरा-पटना की दिक्कतों के बारे में...फिर कब, कहाँ और कैसे मिलने के बारे में। हम वहीं बैठे रहे थे, अँधेरा घिरने, चाँद के उगने और फिर चाँद के पिघल-पिघलकर चाँदनी की शक्ल में टपकने तक...।
फिर हम चंचल चटर्जी के पोल्ट्री-फार्म में अण्डे चुराने गये थे। शेरली पता नहीं कैसे कच्चा अण्डा फोड़कर पी लेता था जबकि मुझे कच्चे तोड़े अण्डों से लोंहराइन-फोंकराइन बास आती थी !
रात जब हम शेरली के घर लौटे तो पता चला अयोध्या वाली बावरी मस्जिद ध्वस्त कर दी गयी थी। टेलीविजन पर हमने ढहे मलबे, उन्माद में चीखते सेनानायकों और विक्षिप्त सेना के रोंगटे खड़े कर देनेवाले दृश्य देखे।
‘‘एक ऐतिहासिक स्मारक नष्ट...!’’ मैंने कहा था।
‘‘ऐतिहासिक स्मारक या ऐतिहासिक बखेड़ा...?’’ शेरली तिक्त स्वर में बोला था-‘‘वोट का मोहरा। देख लेना...अब ढहानेवाले नारे लगाएँगे कि मन्दिर वहीं बनेगा और जवाब होगा यहाँ मस्जिद दोबारा खड़ी करो। दोनों मिलकर कभी नहीं कहेंगे कि झगड़ा खत्म करो। झगड़ालू जगह पर भगवान या खुदा नहीं टिकता। सो वहाँ बच्चों के लिए स्कूल, बूढ़ों के लिए कोई पार्क, कोई अस्पताल या संग्रहालय ही बनवा दो।’’
मैं शेरली के तमतमाए चेहरे को ताकता रहा था। आज लगता है कि गुम्बद को ढहानेवाली चोटें कितनी मारक और खतरनाक थीं जिसने सिर्फ ईंट-गारे ही नहीं तोड़े...कई दूसरी चीजें भी उस रोज टूटी थीं। पर हमारी दोस्ती की बुनियाद तो ईंट-गारे की कतई नहीं थी।
आज जब दरवाजे पर दस्तक हुई और मैंने दरवाजा खोला तो शेरवानी, चौड़े पाँयचोंवाला पायजामा और दुपल्ली टोपी पहने सशरीर शेरली को देख सुखद आश्चर्य से तर-ब-तर हो गया मैं।
शेरली...! मेरा यार ! मेरे घर पर...! मेरे दर पर ! बेसाख्ता मुँह से निकला-
‘‘याराँ नाल बहाराँ...’’
‘‘पहचाना मुझे ?’’ शेरली शायद ‘मेले मित्तरां दे’ वाली पंचलाइन भूल चुका था। आखिर एक छोटे से आधे-अधूरे जुमले को भूलने के लिए सात, आठ या शायद नौ साल का वक्फा नाकाफी तो नहीं होता।
‘‘वक्त के साथ चेहरे क्या इतने बदल जाते हैं कि मैं तुझे पहचानूँ ही नहीं..स्साले !’’ मैंने उसकी शेरवानी का कॉलर पकड़कर उसे घर के भीतर खींचा-‘‘चल पुत्तर...भीतर आ जा।’’
‘‘एक जरूरी काम से आरा आया था,’’ उसने कहा था-‘‘सारी ट्रेनें डिस्टर्ब हैं। पटना के लिए पहली गाड़ी अब शाम को ही मिल सकेगी...सो तेरा घर ढूँढ़ता यहाँ...’’
‘‘अबे उल्लू की दुम फाख्ता !’’-मैंने इसे टोका-‘तुझसे आने की या अब तक न आने की सफाई कौन माँग रहा है ? यार आ गया...बस, बहार आ गयी। क्यों आया...कैसे आया ये बातें बेमानी हैं यार !’’
मैंने उसे सोफे पर धकेल दिया। खिड़कियाँ खोलकर पर्दे हटा दिये ! घर में शान्ति सूँघता शेरली बोला, ‘‘घर में अकेले ही हो शायद !’’
‘‘हाँ, फिलहाल। तेरी भाभीजान बच्चों के साथ दशहरे-छठ की पूजा में गाँव गई हैं।’’ मैंने बताया था-‘‘आज-कल में ही लौटेंगी..और सुना, कैसा है तू ? कुछ दुबला-दुबला दिखने लगा है और...उम्रदराज भी।’’
शेरली हौले से मुस्कुराया था। हँसने में हमेशा से कंजूस रहा है मेरा यार। बोला, ‘‘जैसे तुम जवान हो रहे हो..क्यों ? गंजे होने लगे हो मियाँ, और कुछ भद्दे भी।’’ उसका इशारा मेरी हल्की तोंद की ओर था।
‘‘छोड़ भी..बोल क्या खाएगा ? क्या पिएगा ? चाय, काफी, शर्बत, शिकंजी या मेरा खूने जिगर ?’
‘‘हा...हा..हा...!’’ वह हँसा। ठठाकर हँसा-‘‘अभी तक तेरा खिलन्दड़ापन और शायराना मिजाज गया नहीं ! बदला नहीं तू ?’’
‘‘अबे, मैं क्या बिस्तर की चादर या कुशन-कवर हूँ जो बदल जाऊँगा ?’ मैंने कहा था-‘‘देख मुन्ने, तेरी भाभी है नहीं। होटल में खाता हूँ। फिर भी तेरे लिए करता हूँ कुछ...पता नहीं तू कब का भूखा होगा।’’
शेरली के ‘ना-ना’ करने के बावजूद, छठ पर्व के प्रसादस्वरूप पास-पड़ोस से आये ठेकुएँ-अगरौटे-कवचनियाँ (आटे के पकवान) और चन्द फलों के टुकड़े प्लेट में सजाकर मैंने अपने सामने पड़ी सेण्टर टेबल पर रख दिये।
‘‘चल, बिसमिल्लाह कर ! घर में यही कुछ है मियाँ, छठ का प्रसाद...पा ले !’’
‘‘नहीं यार...कुछ खा नहीं सकूँगा...।’’
शेरली ने प्रसाद की ओर हाथ भी नहीं बढ़ाया। पंजीरी, आटे और सिन्दूर से लिथड़े प्रसाद को देख शायद उसे अरुचि हो रही थी। बाज लोग तो घिनाते भी हैं पर धर्म के भय से कह नहीं पाते। लेकिन मैंने पूछा, ‘‘क्यों ?’’
‘‘दरअसल आज सुबह से ही पेचिश से परेशान हूँ। काम इन्तहाई जरूरी न होता तो मैं ऐसी तबीयत लेकर घर से निकलता ही नहीं।’’
ओह...! तो शेरली के न खाने की वजह, सिन्दूरी में लिथड़े व्यंजन कतई नहीं थे। वह तो दूसरी ही साँसत में पड़ा था।
‘‘तो भई, कुछ फल-वल ही ले ! कुछ तो-’’ मैंने इसरार किया !
‘‘ना...’’ शेरली ने इनकार किया-‘‘आज तो एकदम फाका करूंगा ! वो..क्या कहते हैं तुम्हारे मजहब में कम्पलीट फास्टिंग को ? निठाह उपवास...? या निर्जल उपवास ?’’
वह हँस पड़ा। मैं भी ! फिर मैं उठा।
‘‘अब मैं चाय बनाने जा रहा हूँ। पीनी पड़ेगी। निठाह..निर्जल किया तो साले पटककर तेरे कण्ठ में जलती चाय उड़ेल दूँगा...’’
‘‘अच्छा...ठीक है यार...ले आ तू चाय।’’ वह खिलखिलाया। कमरे में खुशबुएँ बिखर गयीं।
मैंने जैसे-तैसे चाय बनायी। पत्ती कुछ ज्यादा ही पड़ गयी, फिर भी काली चाय बन ही गयी।
फिजाँ में चाय की लहराती भाप और चुस्कियों के बीच हम बातें करने लगे। गुजरे जमाने को याद करने लगे।
स्कूल की बातें, कॉलोनी की यादें, कॉलेज के दिन...! टूटी पुलिया पर गुजरी शामें। चटर्जी दा के फार्म से अण्डे चुराने के किस्से। बचपन की परछाइयाँ...मरे हुए क्षणों की स्मृतियाँ मुखर होती रहीं।
बीवी की फरमाइशें...बच्चों के भविष्य...रोजमर्रा की किलकिल और नौकरी के लफड़ों से गुजरता बातों का दरिया चुनाव और राजनीति की ओर मुड़ गया। विषय बदलते रहे..वक्त गुजरता रहा...न पेट भरा..न मन ही अघाया !
जब शेरली ने जाना कि मैंने कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया है तो उसने प्रगतिशील साहित्य का जिक्र करते हुए, हिन्दू-मुस्लिम एकता और गैरसाम्प्रदायिकता की बातें करते हुए कई कहानियों के नाम गिना डाले। भीष्म साहनी की किताब ‘तमस’ और राही मासूम रज़ा के उपन्यास ‘आधा गाँव’ के कई संवाद ‘कोट’ किये।’
हमारे अलग होने के बाद के गुजरे कई सालों तक तो मैं बस रसायन विज्ञान ही पढ़ता-पढ़ाता रहा था। कभी-कभार पत्रिकाएँ या कहानियाँ पढ़ता था...खाली समय में। बाकायदा लिखने-पढ़ने का सिलसिला तो इधर-पाँच सालों से ही, पर शेरली ने तो न जाने कितना कुछ पढ़ डाला था। तभी तो वह काफी होशियारी भरी बातें करने लगा था।
बच्चों पर बात निकली तो उसने बताया कि उसने तो अपनी आठ वर्षीया बेटी रजिया के निकाह की योजना भी बना डाली थी। इस जमाने में इतनी कम उम्र में शादी की बात सोची भी कैसे उसने ? शेरली का बेटा इमरान मदरसे से तालीम पा रहा था। अब वह बेटे को सुदूर ‘स्टेट्स’ भेजने की सोच रहा है। आलिम-फाजिल बनाना चाहता है बेटे को। शेरली के अनुसार आदमी को अपने धर्म और संस्कृति की जड़ों से उखड़ना नहीं चाहिए!
मैंने उसे टोका था, ‘‘क्या दकियानूसी बातें करते हो मियाँ ? दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच चुकी है। डायनासोर के डी.एन.ए. से बृहस्पति की धुन्ध तक..और तू है कि इक्कीसवीं सदी में भी बाल-विवाह और उसी पुराने मदरसे से चिपका है...’’
‘‘मुन्ने..पता है...?’’ शेरली संजीदा हो गया था-‘‘जब महमूद गज़नवी सोमनाथ के मन्दिर पर चढ़ा आ रहा था तो एक पण्डित ने उसे चुनौती दी थी कि, ‘तुम मन्दिर नहीं लूट सकोगे। सर्वशक्तिमान ईश्वर तुम्हें रोक लेगा। हम तुम्हें रोक लेंगे।’ जानते हो तब महमूद ने क्या कहा...? उसने कहा था, ‘तुम हमें क्या रोकोगे ? तुम काफिर लोग बरहमन हो, राजपूत हो, बनिए हो...अछूत हो और हम...हम सिर्फ मुसलमान हैं...हमें कोई नहीं रोक सकता।’ फिर सोमनाथ के मंदिर का जो हश्र हुआ है वह सारी दुनिया जानती है। ‘सामर्थ्य और सीमा’..भगवतीचरण वर्मा...रिमेम्बर...?
मुझे मानना पड़ा, वाकई शेरली की अक्ल में इन्कलाबी इजाफा हुआ था। किसी को कायल कर लेने की हद तक समझदार और तार्किक हो गया था मेरा प्यार ! काफी जहीन ! बेहद दाना !!
मैंने शेरली को एक नयी निगाह से देखा। छोटे-से कस्बे की छोटी-सी कॉलोनी में रहने वाला मेरा दोस्त शेरली इतना होशियार तो कभी नहीं था। गुजरे कुछ सालों की शहरी जिन्दगी ने उसे कितना दुनियादार बना दिया था ?
मेरे साथ मुर्गी के अण्डे चुरानेवाला शेरली, पूरे सावन महीने झींसी-झड़ी से भीगती-सिहरती भोर में दूसरों की फुलवारियों से मेरी माँ के लिए पूजा के फूल-बेलपत्र चुरानेवाला शेरली....कितनी ज़हीन और उम्दा बातें करने लगा था ! मन्त्रमुग्ध मैं उसकी बातें सुनता रहा था। कई-कई बातें तो उसने ऐसी कहीं जो ऐसे मौकों पर मैं अपनी कहानियों के पात्रों से कहलवाना चाहता था।
..पर क्या वाहियात विषय छेड़ बैठे थे हम, वह भी ऐसे खुशनुमा मौके पर। बोलते-बोलते शेरली का चेहरा तमतमा उठा था। ज्यादा बिलोने से लस्सी पतली हो कर बिगड जाने का खतरा होता है। मैंने सन्दर्भ बदलने की नीयत से उसे टोका।
‘‘अच्छा..भई...तू जीता ! अब ज्यादा पीर-फकीर मत बन ! तू तो एकदम किसी इमाम-मौलाना की तरह तकरीर झाड़ना सीख गया है। पर मेरे बच्चे,...जब हमने हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द की कोई कहानी नहीं पढ़ी थी तब भी हमारी दोस्ती किसी हितोपदेश या पैरेबल्स की मोहताज नहीं थी। अब भी नहीं है...तू बोल, है क्या ?’’
उत्तर में शेरली ने अपनी कलाई घड़ी पर ताका।
‘‘या अल्लाह ! साढ़े छः !! पता ही नहीं चला वक्त कैसे गुजर गया। भई, अब मैं तो निकलूँगा...मेरी ट्रेन का वक्त शायद हो चुका।’’
‘‘यह तो कोई बात नहीं हुई-’’ मैंने इसरार किया-‘‘आज रात रुक ही जाते। ढेर सारी बातें करते हम ! तुमने तो न कुछ खाया...न पिया बस आये और चल दिये।’’
‘‘क्यों...? चाय नहीं पी...?’’ शेरली मुस्कुराया था।
‘‘फिर भी...!’’मैं झेंप गया ! संकोच से मुस्कुरा भी न सका था।
अमाँ छोड़ो भी ये फॉर्मेलिटीज़। जौक़ साहब ने भी तकल्लुफ को सरासर तकलीफ ही फरमाया है।
‘‘पर...शेरली।’’
‘‘तुम तो बस....! अगली बार के लिए भी कुछ रहने देगा कि नहीं ? सो माई सन, बेटर लक नेक्स्ट टाइम...ओ.के. ?’’
मैंने मौन सहमति दी। उसे रिक्शे पर बिठाकर जल्दी ही फिर आरा आने का वायदा लेकर, टेलीफोन नम्बरों का आदान-प्रदान करने के बाद विदा में हाथ हिला कर मैंने शेरली को स्टेशन के लिए रवाना किया।
शेरली विदा हो गया। दिन भर गप्पे मारने के बाद अचानक शान्त हो गये घर का अकेलापन कुछ ज्यादा ही गाढ़ा लगने लगा। शेरली तो जैसे आँधी की तरह आया और ढेर सारी यादों को ख़तों के पुलिन्दे सा बिखराता तूफान की भाँति गुजर गया। अपने पीछे मुझे कुछ उसी तरह किसी अकेले स्टेशन पर छोड़कर, जैसे कभी मैं उसे पटना स्टेशन पर छोड़कर आया था। मन उदास-उदास लगने लगा था...या शायद मैं जरूरत से कुछ ज्यादा ही ‘नास्टेल्जिक’ हो रहा था। मुझे अपना ही घर काटने लगा।
अब तक मैं कई कहानियाँ लिख चुका था पर पहली बार मैंने एक कहानी लखनऊ की एक पत्रिका द्वारा आयोजित कथा प्रतियोगिता में भेजी थी। कहानी ने प्रथम पुरस्कार पाया था उसकी सूचना मुझे डाक से मिल चुकी थी। यह प्रतियोगिता जिस कथा-पत्रिका ने आयोजित की थी उसका नया अंक इसी हफ्ते अपेक्षित था। शायद नया अंक आ ही गया हो। इसी बहाने मैंने स्टेशन पर स्थित बुकस्टाल का एक चक्कर लगाने का फैसला किया। शायद इससे मेरा अकेलापन कुछ कम हो सके। वैसे भी खूबसूरत शामें अकेले कमरे में बिताने से मुझे दहशत-सी होती है।
वह गुजरते अक्टूबर की सिहरती सर्द शाम थी। हल्के कोहरे में स्ट्रीट-लाइट की बत्तियाँ भुकभुकाने लगी थीं। मैं टहलता हुआ स्टेशन के प्रवेश-द्वार तक आ पहुँचा।
अभी प्रवेश-द्वार से कुछ कदम दूर ही था कि मेरे कदम ठिठक गये ! अचानक सामने गढ़ा देखकर अड़ने वाले घोड़े की तरह...!
शेरली, मेरा दोस्त...मेरा यार...एक चाय-समोसे की दुकान के बाहर खड़ा था। हाथ में समोसे की प्लेट थामे। गर्मागर्म लहरते समोसे के टुकड़े जबड़ों में कुचलते-पलटते शेरली को देख मैं...पर उसने तो कहा था पेचिश है..उपवास पर हूँ। मेरे यहाँ कुछ खाते न बना..कहता था मुफीद नहीं रहेंगे....पेचिश बिगड़ने का अन्देशा था उसे और यहाँ होटल के घटिया समोसे...? ठहर साले, अभी झाड़ता हूँ तेरी पेचिश...!
...पर मैं अपने सोच को कार्यरूप में परिणत न कर सका। समोसे खाते शेरली की कही कई बातें याद आने लगीं। उसकी गम्भीर आवाज...उसकी संजीदा बातें...धर्म, संस्कृति, जड़े, काफिर...बरहमन..राजपूत...मुसलमान ढेर सारे शब्द गड्डमड्ड होकर मेरी चेतना में टकराने लगे।
ओह...! मुझे मेरे यार शेरली के चेहरे पर लहराती लम्बी सफेद दाढ़ी क्यों उगती दिखने लगी ? उसके सिर पर घने घुँघराले बालों की जगह सफेद जालीदार टोपी...हाथ में प्लेट की बजाय तस्बीह..या कोहरे के पार कोई भ्रम...।
ना...कतई नहीं...! वह मेरा यार शेरली नहीं हो सकता। समोसे निगलता वह शख्स कोई और है जिससे मेरा कोई वास्ता नहीं। किसी गैर को बेवजह क्यों टोकना...जरूर मेरी आँखों को धोखा हो रहा है। मेरा दोस्त तो कब का पटना को रवाना हो चुका है। यह शख्स तो कोई फकीर है...कोई मुल्ला-मौलवी...मेरे लिए कतई अजनबी...कोई नया चेहरा...!
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